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भाग 7: उदासीनता का जाल — लोकतंत्र का मौन हत्यारा
कैसे जनता की चुप्पी चुनावी भ्रष्टाचार को जड़ से पोषण देती है
विश्लेषण / विचारधाराOPINION / ANALYSIS
Rohit Thapliyal
8/13/2025



लोकतंत्र में सत्ता की असली मालिक जनता है — लेकिन मालिक जब सो जाता है, तो नौकर तिजोरी पर कब्ज़ा कर लेते हैं।
भारत में करोड़ों लोग गड़बड़ी जानते हुए भी चुप रहते हैं, मानो यह उनका निजी मामला न हो।
यह उदासीनता कोई साधारण दोष नहीं — यह वह मौन हथियार है, जिससे भ्रष्ट व्यवस्था को सबसे ज़्यादा ताकत मिलती है।
"लोकतंत्र में सबसे खतरनाक चुप्पी होती है — जनता की चुप्पी।"
भारत का संविधान हमें वोट का अधिकार देता है, लेकिन क्या हम इसे बचाने के लिए उतने ही सजग हैं जितने इसे इस्तेमाल करने के समय?
आज, जब वोट चोरी, फर्जी नाम, और अब मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर नागरिकों को बाहर करने जैसी घटनाएं हो रही हैं, तब जनता की उदासीनता सबसे बड़ा हथियार बन गई है — उन्हीं ताकतों के हाथ में जो लोकतंत्र को कमजोर करना चाहते हैं।
उदासीनता का चेहरा
उदासीनता कोई एक दिन में पैदा नहीं होती — यह धीरे-धीरे बढ़ती है, जब:
लोग कहते हैं, "मेरे एक वोट से क्या फर्क पड़ेगा?"
भ्रष्टाचार और धांधली को “सिस्टम का हिस्सा” मानकर स्वीकार कर लेते हैं।
अपने अधिकार छिनने पर भी कहते हैं, "हम क्या कर सकते हैं?"
गली के नुक्कड़ पर वोट खरीदने की खबर सुनना — और कहना “यार, ये तो हमेशा से होता आया है।”
फर्जी वोटर का नाम पकड़ना — और चुप रहना, क्योंकि “कौन पचड़े में पड़े।”
नेता के धार्मिक भाषण पर भीड़ में ताली बजाना — भले ही अंदर से आप असहमत हों।
यही मानसिकता सत्ता को बिना जवाबदेही के फैसले लेने देती है।
बिहार का ताज़ा उदाहरण — नागरिकता प्रमाण का विवाद
बिहार में इस समय मतदाता सूची पुनरीक्षण के नाम पर एक नई प्रक्रिया चल रही है, जिसमें:
पुराने वोटर कार्ड, आधार कार्ड, पैन कार्ड को पर्याप्त प्रमाण नहीं माना जा रहा।
लोगों से नागरिकता प्रमाण मांगा जा रहा है, जैसे जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट या अन्य दस्तावेज़।
कई ग्रामीण, गरीब, बुजुर्ग, और प्रवासी मजदूरों के पास ये पुराने नागरिकता दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं हैं।
नतीजतन, वे मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं, यानी वोट का अधिकार खो सकते हैं।
खतरा: यह “वोटर सप्रेशन” की एक रणनीति हो सकती है, जिससे कुछ वर्गों का मतदान घटाया जा सके।
उदासीनता कैसे इसे और बढ़ाती है
जब लोग इन प्रक्रियाओं को चुनौती नहीं देते,
गलत नीतियाँ बिना विरोध के लागू हो जाती हैं।
पीड़ित वर्ग खुद भी सोचता है कि "शायद ये सही है" या "मेरा नाम कट भी गया तो क्या होगा?"
मीडिया और विपक्ष को भी लगता है कि जनता इस मुद्दे पर सक्रिय नहीं है, तो वह प्राथमिकता घटा देते हैं।
यही चुप्पी लोकतंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन है।
लोग चुप क्यों रहते हैं?
1. मानसिक थकान (Political Fatigue)
सालों से गड़बड़ी देखते-देखते दिमाग यह मान लेता है कि बदलाव असंभव है।
2. व्यक्तिगत असुरक्षा
स्थानीय दबंग या राजनीतिक कार्यकर्ताओं से टकराव का डर।
3. “मुझसे क्या फर्क पड़ेगा” सोच
जब लोग मान लेते हैं कि कोई और कार्रवाई करेगा।
4. राजनीतिक चश्मा
अपनी पसंदीदा पार्टी के पक्ष में हो तो गलती को अनदेखा करना।
इतिहास से सबक — मौन की कीमत
भारत का आपातकाल (1975-77): शुरू में जनता की चुप्पी ने सेंसरशिप और गिरफ्तारियों को आसान बनाया।
जर्मनी, 1930 का दशक: हिटलर के सत्ता में आने से पहले बहुसंख्यक नागरिक चुप रहे — परिणाम था नरसंहार और युद्ध।
दक्षिण अफ्रीका: रंगभेद के खिलाफ आंदोलन तभी सफल हुआ, जब चुप्पी तोड़कर आम नागरिक सड़कों पर उतरे।
आज की तस्वीर (भारत, 2019-2025)
वोट चोरी के प्रमाण — लेकिन गाँव और शहरों में नागरिक शिकायत दर्ज कराने से कतराते हैं।
ध्रुवीकरण वाला प्रचार — चुनाव जीतने का हथियार, जिसे लोग “चुनाव का हिस्सा” मानकर अनदेखा कर देते हैं।
डिजिटल डेटा न देने पर मौन — जबकि यही डेटा गड़बड़ी का सबसे बड़ा सबूत है।
उदासीनता तोड़ने का रास्ता
जागरूकता अभियान: गाँव-गाँव, मोहल्ला-मोहल्ला जाकर लोगों को मतदाता सूची चेक करने और दस्तावेज़ तैयार करने के लिए प्रेरित करना।
कानूनी लड़ाई: जनहित याचिका (PIL) और RTI के माध्यम से चुनाव आयोग से पारदर्शिता की मांग।
सामाजिक दबाव: सोशल मीडिया और स्थानीय अख़बारों के जरिए मुद्दे को चर्चा में लाना।
स्वयंसेवी नेटवर्क: स्थानीय युवाओं की टीम बनाना जो बुजुर्गों और अनपढ़ नागरिकों को दस्तावेज़ बनवाने में मदद करे।
1. व्यक्तिगत स्तर
मतदाता सूची में अपना नाम और विवरण हर चुनाव से पहले चेक करें।
किसी भी गड़बड़ी को दस्तावेज़ और फोटो सहित रिकॉर्ड करें।
2. सामूहिक स्तर
मोहल्ला/ग्राम नागरिक निगरानी समिति बनाना।
चुनाव के दिन बूथ पर कानूनी रूप से अनुमत निगरानी टीम भेजना।
3. कानूनी और डिजिटल टूल्स
RTI, जनहित याचिका (PIL) का इस्तेमाल।
सोशल मीडिया के जरिये सत्यापित प्रमाण का सार्वजनिक प्रसार।
निष्कर्ष
“लोकतंत्र में मौन भी एक चुनाव है — और वह अक्सर गलत पक्ष चुनता है। ”उदासीनता, लोकतंत्र का मौन हत्यारा है — यह सत्ता को बिना शोर-शराबे के जनता के अधिकार छीनने देती है।
अगर हम आज नहीं बोले, तो कल हमारे पास बोलने का भी अधिकार नहीं बचेगा।
इसलिए सवाल यह है:
"क्या हम चुप रहकर लोकतंत्र को मरते देखेंगे, या उठकर इसकी रक्षा करेंगे?"
जनशक्ति का असली शत्रु सिर्फ भ्रष्ट नेता या तंत्र नहीं, बल्कि नागरिक की मानसिक जड़ता है।
जब हम चुप रहते हैं, तो हम चुपचाप अपनी आज़ादी, अपना अधिकार और अपने बच्चों का भविष्य किसी और के हाथ में सौंप देते हैं।
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