नेतागिरी बनाम जनशक्ति — भाग 3: हम पिछड़े क्यों?

"कहीं व्यवस्था से हार है, कहीं स्वार्थ की मार है, पर असली सवाल ये है— क्या जनशक्ति खुद बेकार है?"

OPINION / ANALYSISविश्लेषण / विचारधारा

रोहित थपलियाल

7/25/20251 मिनट पढ़ें

प्रस्तावना:

"कहीं व्यवस्था से हार है,
कहीं स्वार्थ की मार है,
पर असली सवाल ये है—
क्या जनशक्ति खुद बेकार है?"

भारत, एक ऐसा राष्ट्र जिसे प्रकृति ने हर प्रकार की संपदा दी है — जल, जंगल, जमीन, जनसंख्या और ज्ञान। फिर भी जब हम स्वयं से पूछते हैं — "हम पिछड़े क्यों?" — तो उत्तर सिर्फ संसाधनों की कमी नहीं देता, बल्कि एक गहरी आत्ममंथन की पुकार करता है।

1. नेतागिरी का अभिशाप — नेतृत्व या लाभ का धंधा?

हमारे देश में नेतागिरी का अर्थ अब सेवा नहीं, सत्ता हो गया है।

जो जनप्रतिनिधि बनने आते हैं, वे जन से कटकर "शासनकर्ता" बन जाते हैं।

योजनाएं बनती हैं लेकिन ज़मीन तक पहुँचते-पहुँचते वे फाइलों में दम तोड़ देती हैं।

शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि जैसे मूल स्तंभों पर राजनीतिक सौदेबाज़ी की जाती है।

प्रश्न: क्या ये नेतृत्व जनशक्ति को उभार रहा है या केवल उसे वोट-बैंक में बदल रहा है?

2. जनमानस की चुप्पी — सबसे बड़ा अपराध

"जो सहता है, वो गुनहगार भी होता है।"
हमारे देश में अत्याचार, भ्रष्‍टाचार और कुप्रबंधन के खिलाफ जनता सिर्फ सोशल मीडिया तक सीमित है।

पंचायतों में सवाल नहीं पूछे जाते।

स्कूल में मास्टर नहीं आता, पर अभिभावक चुप है।

राशन में मिलावट होती है, पर गरीब डर से चुप है।

सरकारी अस्पताल में इलाज नहीं, पर जनशक्ति झुक जाती है।

विचार: चुप्पी एक सामाजिक महामारी बन चुकी है। जब जनशक्ति बोलना भूल जाए, तब नेतागिरी बेलगाम हो जाती है।

3. शोषण की सांस्कृतिक चेन — जाति, धर्म और क्षेत्रवाद

"बांटों, ताकि राज कर सको।" — यही तंत्र का मौन सिद्धांत रहा है।

जातिगत राजनीति ने समाज को हजारों टुकड़ों में बाँट दिया।

धर्म के नाम पर वोट माँगे जाते हैं, और मंदिर–मस्जिद की आग में विकास जलता है।

क्षेत्रवाद ने एकता की जड़ों को खोखला किया है।

सच्चाई: जब हम एक भारतीय से पहले जाति, धर्म और क्षेत्र की पहचान पर लड़ते हैं, तब जनशक्ति बिखर जाती है — और नेतागिरी जीत जाती है।

4. शिक्षा — सबसे बड़ा हथियार या खोखला सिस्टम?

देश के लाखों युवाओं को शिक्षा मिली है, लेकिन क्या वह उन्हें "सोचने" और "बोलने" के काबिल बना रही है?

किताबें रटवाई जाती हैं, प्रश्न नहीं पूछने दिए जाते।

इतिहास के नायक भूलाए जाते हैं, और उपभोग की संस्कृति पढ़ाई जाती है।

तकनीक आती है, लेकिन मूल्य नहीं।

परिणाम: जनशक्ति शिक्षित तो है, लेकिन चेतनाशून्य। जब सोचने की आज़ादी नहीं होती, तब नेतृत्व चुनने की शक्ति भी कमज़ोर हो जाती है।

5. भ्रष्टाचार — एक सामाजिक स्वीकृति

अब रिश्वत एक ‘व्यवस्था’ बन चुकी है।

नौकरी चाहिए? घूस दो।

योजना का लाभ चाहिए? कमीशन दो

कोई काम करवाना है? 'चाय पानी' दो।

विचारणीय: जब भ्रष्टाचार को सामान्य मान लिया जाता है, तब देश की आत्मा मरने लगती है। और यही वह बिंदु है, जहाँ से जनशक्ति पिछड़ जाती है।

निष्कर्ष:

हम पिछड़े इसलिए नहीं हैं कि हमारे पास संसाधन नहीं हैं।
हम पिछड़े इसलिए हैं क्योंकि—

नेतागिरी को पूजनीय बना दिया।
✅ सवाल पूछना छोड़ दिया।
✅ अपनी चुप्पी को संस्कृति बना लिया।
✅ समाज को बाँटने की साजिशों को पहचानने से इंकार कर दिया।

और सबसे बड़ा दोष — हमने जनशक्ति को जगाने की जिम्मेदारी दूसरों पर डाल दी।

अगला कदम:

"अब वक्त है चुप्पी तोड़ने का,
अब वक्त है अपने हिस्से की जिम्मेदारी लेने का।
क्योंकि अगर जनशक्ति नहीं जागी,
तो नेतागिरी कभी नहीं रुकेगी।"


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