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नेतागिरी बनाम जनशक्ति — भाग 4: “जनशक्ति जब आत्मा खो देती है”
"जब आत्मा मौन हो जाए, तो शरीर गुलाम बन जाता है। और जब जनशक्ति अपनी आत्मा खो दे — तब तानाशाही, लोकतंत्र की वेशभूषा पहन लेती है।"
OPINION / ANALYSISविश्लेषण / विचारधारा
रोहित थपलियाल
7/25/2025
"जब आत्मा मौन हो जाए,
तो शरीर गुलाम बन जाता है।
और जब जनशक्ति अपनी आत्मा खो दे
तब तानाशाही, लोकतंत्र की वेशभूषा पहन लेती है।"
भारत आज़ाद हुआ — पर क्या हम भीतर से भी आज़ाद हुए?
हम संविधान पढ़ते हैं, पर चेतना नहीं जगाते।
हम वोट डालते हैं, पर स्वर नहीं उठाते।
हम देशभक्ति की बात करते हैं, पर दर्द से मुँह मोड़ लेते हैं।
यह खंड उस गहराई में उतरता है जहाँ जनशक्ति की आत्मा
धीरे-धीरे सत्ता की चुप्पी में खोती जाती है।
1. आत्मा का हरण चुप्पी की संस्कृति कैसे बनी?
"एक समय था जब लोग ज़िंदा रहने के लिए लड़ते थे,
आज वे जीते हैं… चुप रहकर।"
हर बार जब हम भ्रष्टाचार को देखकर चुप हो जाते हैं,
हर बार जब हम अन्याय देखकर ‘कन्नी काट लेते हैं’,
तो हम सिर्फ मौन नहीं होते —
हम अपनी आत्मा का एक टुकड़ा खो देते हैं।
चुप रहना अब "सुरक्षा" बन गया है
और यही संस्कृति नेतागिरी को ताक़त देती है।
विचार:
जब चुप्पी आदत बन जाए,
तो सड़कों पर सिर्फ जुलूस रहते हैं — जनता नहीं।
2. आत्मघात — जब जनशक्ति, जनद्रोही बन जाए
"सबसे ख़तरनाक वो होता है,
जो तुम्हारा ही चेहरा पहनकर तुम्हें धोखा दे।"
नेतागिरी की सबसे बड़ी चाल ये है —
कि वो आम जनता को ही अपने खिलाफ खड़ा कर देती है।
कभी जाति के नाम पर,
कभी धर्म के नाम पर,
कभी वोट के लालच में —
भाई को भाई से, और गाँव को गाँव से लड़वा देती है।
और फिर हम ही —
अपने अधिकारों के जलने पर ताली बजाते हैं।
कटु सत्य:
आज जनशक्ति सिर्फ शोषित नहीं है —
कई बार वह खुद ही शोषण का औज़ार बन गई है।
3. विवेक का पतन — जब प्रश्न पूछना अपराध बन जाए
"जहाँ प्रश्न मरते हैं,
वहाँ स्वतंत्रता सिर्फ झंडा बनकर रह जाती है।"
हमारे समाज में अब सवाल पूछना गुनाह बन चुका है —
स्कूल में सवाल पूछो — दंड मिलता है।
पंचायत में सवाल पूछो — बहिष्कार मिलता है।
राजनीति में सवाल पूछो — देशद्रोही कहा जाता है।
और यहीं से शुरू होती है आत्मा की मौत —
जहाँ विवेक दब जाता है,
वहाँ सिर्फ भीड़ बचती है — जनता नहीं।
चिंतन:
जब विवेक सोता है,
तो वोट तो पड़ते हैं —
पर विकल्प मर जाते हैं।
4. आत्मचेतना की पुकार — क्या अब भी देर नहीं हुई?
"जो आग चूल्हे में जलनी चाहिए थी,
वह अब दिलों में जल रही है।"
गाँव का किसान,
शहर का मजदूर,
युवक, जो डिग्री लेकर भी बेरोज़गार है —
सबकी आँखों में एक अनकही व्यथा है।
यह सिर्फ दुख नहीं — यह दमन की स्मृति है।
जो पीढ़ियों से जमा होती गई —
और अब भीतर ही भीतर जनशक्ति को खोखला कर रही है।
प्रेरणा:
अब भी समय है —
हम आत्मचेतना को जगा सकते हैं।
सवाल पूछ सकते हैं।
अपने भीतर के डर से लड़ सकते हैं।
निष्कर्ष:
हम पिछड़े नहीं हैं —
बल्कि हमें पिछड़ने पर विवश किया गया है।
पर सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि—
हमने इस विवशता को स्वीकार कर लिया है।
नेतागिरी केवल तभी जीवित रहती है —
जब जनशक्ति अंदर से मर जाती है।
पर अगर आत्मा जगे,
तो कोई सत्ता, कोई तंत्र
उस जनशक्ति को रोक नहीं सकता।
अगला कदम:
"अब वक्त है आत्मा को जगाने का,
अपने मन की गाँठें खोलने का।
क्योंकि जब जनशक्ति अपनी आत्मा से फिर जुड़ती है —
तब सत्ता नहीं, सेवा जन्म लेती है।"
अगले भाग में:



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